Thursday, November 10, 2016

मंगल ठाकुर के मैथिली कविताः दू

बहु आऊ अहां अशेष,
बड़ सहलहुं अछि आब कलेष,
मेटल ठोप, बहल दृग अंजन
नहिं आओल अछि किछु संदेश।

बीतल दिन बीतल ऋतु चारि
अंकुर निकसल धरती फारि
पुलकित सब कुंठित हम छी
बाटि तकैत गेल फाटि कुहेस।

स्नेहसिक्त लोचन स्वामी के
आलिंगन दुनू प्राणी के
नयन कलश में भरल अश्रु-जल
पुलकित मन अर्पण प्राणेश।



Monday, October 31, 2016

मंगल ठाकुरअक कविता

धानक फुनगी पर मकड़ा के जाली,
जाली में ओसक बून्द,
चमचम चमकै ओसक जाली,
वसुधा ओढ़ने छथि मोतिक चून
ताहि बगल में छोट-छिन डबरा
डबरा में पोठिया के झुंड

डबरा में ठाढ़ भेलि कुमुदिनी लजायल,
सूर्यसन पुरुष के देखितहिं कुमुदनी
लाजे लेलन्हि अपन आंखि मूंदि

कासक पुष्प,
सेहो ओघांयल सन
नींदक मातल सन,
भोरक भकुआयल सन
लागल जेना कुमुदिनी के लेता चुमि

इ छैक मिथिला के भोरका सुंदरता
एकरा नजरि ककरो नहिं लागै


'और अब प्रस्तुत है इस कविता का हिन्दी अनुवाद


धान की फुनगी पर,
मकड़े की जाली,
जालों पर शबनम की बूंद...
खेत के पास
छोटा-सा डबरा[1]...
डबरे में खेलती पोठी[2] मछलियों के झुंड...


वहीं खड़ी थी कुमुदिनी लजाई,
सूरज-से प्रिय देख,
आँखें लीं मूंद...

कास[3] के फूल, वो भी अघाए-से,
निंदाया-भकुआया, अल्लसुब्बह लगा कि लेगा
लाज से लाल कुमुदिनी को चूम ।



हिन्दी में अनुवादः मंजीत ठाकुर

शब्दार्थः 1 पोखरा 2. मछली की एक प्रजाति 3. बरसात के अंत में खिलने वाला एक फूल

Saturday, August 6, 2016

भांग विद मंजीत

हे.. लटर-पटर दूनू टांग करै,
जे नहिं नबका भांग करै,

हे.. लटर-पटर दूनू टांग करै,
जे नहिं नबका भांग करै।।


आ रसगुल्ला इमहर सं आ,

इमहर सं आ, उमहर सँ आ,

सीधे मुंह में गुड़कल आ

एक सेर छाल्ही आ दू टा रसगुल्ला

एतबे टा मन मांग करै।


हे.. लटर-पटर दूनू टांग करै,
जे नहिं नबका भांग करै।।

Wednesday, July 20, 2016

भांग विद मंजीत

हे.. लटर-पटर दूनू टांग करै,
जे नहिं नबका भांग करै,

हे.. लटर-पटर दूनू टांग करै,
जे नहिं नबका भांग करै।।

आ रसगुल्ला इमहर सं आ,
इमहर सं आ, उमहर सँ आ,
सीधे मुंह में गुड़कल आ

एक सेर छाल्ही आ दू टा रसगुल्ला
एतबे टा मन मांग करै।
हे.. लटर-पटर दूनू टांग करै,
जे नहिं नबका भांग करै।।

Sunday, July 17, 2016

नींक-नींक काज करैत जायब

''नींक-नींक काज करैत जायब,'' राजा कूड़न किसान सँ कहलथिन्ह। कूड़न, बुढ़ान सरमन आ कौंराईृ, इ छेलाह चारि टा भाई। चारों भोर में जल्दी उइठकँ अपना खेत पर काज करअ जाइत छेलाह।

दुफहरिया में कूड़नअक बेटी अबैत छलीह, पोटरी में खाना लकअ। एक दिन गाम पर सँ खेत जाइत समय बेटी के एकटा कोनगर पाथर सँ ठोकर लागि गेलहि। ओकरा बड्ड क्रोध एलहि। अपनां दरांती सँ ओ ओहि पाथर के उखाड़क कोशिश करअ लगलीह। एकरे बाद फेर बदलैत जाइत अछि एहि पइघ किस्सा के घटना। तेजी सं। पाथर उठाक लड़की भागैत-भागैत खेत पर आवैत अछि. अपना पिता आ कक्का के सब बात एकहि सांस में बतबैत अछि।

चारु भाइ के सांस अटैक जाइत अछि। सब. जल्दी-जल्दी घर लौटेत छथि। हुनका मालूम पड़ि गेल छैन्ह कि हुनक हाथ में कोनो साधारण पाथर नहिं, पारस छैन्ह। लौहअक जेहि चीज़ सँ छुअवैत छथि ओ सोना बनि जाइत अछि आ हुनका आंखि में चमक भरि दइत छैन्ह।

लेकिन आंखिक ऐहि चमक बेसि काल तक नहिं टिक पवैत। कूड़न के लगैत छैन्ह कि देर-सबेर राजा तक एहि बात पहुंचिए जायत आ तखन पारस छिना जायत. तअ कि इ नींक नहिं होयत कि अपने सँ जाकअ राजा के सब कीछ बता देयल जाय।

किस्सा आगां बढ़ैत अछि...फेर जे कछु घटैत अछि ओ लोहाके नहिं बल्कि समाज के पारससँ छुआवक किस्सा बनि गैल। राजा नहिं पारस लेल न सोना.। सब किछ कूड़नके घुमौवैत कहलाह- एहि सँ नींक-नींक काज करिअह। पोखरि खुदिवैह।

इ किस्सा सत्त अछि, ऐतिहासिक अछइ- नहिं मालूम लेकिन पर देश के बिचोंबीच एक बहुत पइघ हिस्सा में इ किस्सा इतिहासके अंगूठा देखौवैत लोकक मन में रमल अछि। एहिठआंव पाटन नामक क्षेत्र में चारि टा बड्ड पइघ पोखरि आइओ अछि। आ एहि किस्सा इतिहास के कसौटी पर कसअ वालासबके लजौवैत अछि- चारु पोखरि क नाम चारु भाई के नाम पर अछि. बुढ़ागर में बूढ़ा सागर, मझगवां में सरमन सागर, कुआंग्राम में कौंराई सागर आ कुंडम गांव में कुंडम सागर.

सन् 1907 में गजेटियर के माध्यम सँ एहि देशक 'व्यवस्थित' इतिहास लिखवाक घूमि रहल अंग्रेज भी एहि इलाका में कतेबाक लोकनि सँ एहि किस्सा सुनल आ फेर देखलिन्ह आ फेर परखलैन्ह एहि चारि पइघ पोखरिक।

तखनों सरमन सागर एतेक पउघ छल कि ओकर भीड पर तीन पइघ-पइघ गांम बसेल छल आ तीनों गांम एहि पोखरि के अपना-अपना नाम सँ बांटि लेल। लेकिन ओ विशाल ताल तीनों गाम के जोडऐत छल आ सरमन सागर के नाम सँ स्मरण होइ त छल. इतिहास सरमन, बुढ़ान, कौंराई और कूड़न के याद नहिं राखल..लेकिन एहि लोक पोखरि बनवैलैन्ह आ इतिहस के भीड़ पर धअ देलखिन्ह।

देश-क मध्य भाग में, ठीक हृदय लअग धड़कैत इ किस्सा उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम- चारों दिस कोनो रुप में भेटिए टा जायत। एहि के साथ भेटत सैकड़ों, हजारों पोखरि। एकर कोनो गिनती नहिं। एहि पोखरीक गिनअ वाला नहिं हिनका बनावअ वाला आवैत रहलाह, पोखरी खोदाइत रहल।

जगदीश चन्द्र ठाकुर ‘अनिल’ के दू टा गजल

जगदीश चन्द्र ठाकुर ‘अनिल’

२ टा गजल            
 (१)
चान सुरुज के नक़ल करत ओ
दुनियांमे एसगरहु   चलत ओ

जाहि डगरपर नेह   फुलाइछ
ततहि  प्रेमसं पएर धरत  ओ

लड़त ने कहियो खेतक खातिर
अपन विकारक संग लड़त ओ

धनक लेल अगुतायल  दुनियां
मुदा बहरकेर  संग  रहत  ओ

मगन रहत ओ गगन देखिक’
प्रेम करत त  गजल कहत ओ

दनदनाइत  रहतीह  मैथिली
सभठाँ  जय-जयकार करत ओ
(सरल वार्णिक बहर/ वर्ण-१३ )

           (२)
अपने गलती गना रहल छी
भरि दुनियांकें जना रहल छी

खाली घैल बनल छी हम सभ
बेर-बेर ढनमना    रहल छी

कबाछु लगाक’ पूछि रहल छी
किए एना भनभना रहल छी

पएर पकड़िक’ कहै छी दौडू
कथीले’ हमरा कना रहल छी

आसन-प्राणायाम ने बिसरल
तें एखनो दनदना रहल छी
हमरे बलपर देखलौं दिल्ली
आ हमरे उल्लू बना रहल छी

रहै ने कोनो दुःख धरतीपर
इश्वरसं हम   मना रहल छी
(सरल वार्णिक बहर/ वर्ण-१२)

Monday, June 20, 2016

ओजक भोजः कविता

ई आत्मीयता थिक मृग-मरीचिका
जई पाछू आम लोक सदृश
स्थितिकेे खुआ रहल अछि ओजक भोज
झांपल हाड़ भअ गेल बाहर
वसन तरसँ दअ रहल अछि देखार
ई कर्तव्यक द्वार, कियौ नै पाबैछ पार
गलब अछि सहज मुदा
स्वर्ण बनब कठिन
ई संबंध अछि अनंत
ई आत्मीयता अभिन्न...।

कविताः अंजनी कुमार वर्मा, दाऊजी, सहरसा
हुनक लिखल कविता साभार