जगदीश चन्द्र ठाकुर ‘अनिल’
२ टा गजल
(१)
चान सुरुज के नक़ल करत ओ
दुनियांमे एसगरहु चलत ओ
जाहि डगरपर नेह फुलाइछ
ततहि प्रेमसं पएर धरत ओ
लड़त ने कहियो खेतक खातिर
अपन विकारक संग लड़त ओ
धनक लेल अगुतायल दुनियां
मुदा बहरकेर संग रहत ओ
मगन रहत ओ गगन देखिक’
प्रेम करत त गजल कहत ओ
दनदनाइत रहतीह मैथिली
सभठाँ जय-जयकार करत ओ
(सरल वार्णिक बहर/ वर्ण-१३ )
(२)
अपने गलती गना रहल छी
भरि दुनियांकें जना रहल छी
खाली घैल बनल छी हम सभ
बेर-बेर ढनमना रहल छी
कबाछु लगाक’ पूछि रहल छी
किए एना भनभना रहल छी
पएर पकड़िक’ कहै छी दौडू
कथीले’ हमरा कना रहल छी
आसन-प्राणायाम ने बिसरल
तें एखनो दनदना रहल छी
हमरे बलपर देखलौं दिल्ली
आ हमरे उल्लू बना रहल छी
रहै ने कोनो दुःख धरतीपर
इश्वरसं हम मना रहल छी
(सरल वार्णिक बहर/ वर्ण-१२)
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